पच्चीस साल पहले की होली आज भी किसी दुःस्वप्न की तरह झकझोर जाती है। जब सारी दिल्ली रंगो में डूब-उतरा रही थी तब हम गुरु तेग़ बहादुर अस्पताल के आपरेशन कक्ष के बाहर अनुजवत उदीयमान पत्रकार अश्विनी भाटिया की जान की ख़ैर मना रहे थे जिन्हें विगत रात्रि को हमारे कार्यालय में घुसकर बदमाशों ने चाकुओं से घायल कर दिया था।
उन दिनों हमारा साप्ताहिक "प्रतीक टाइम्स" प्रकाशित होता था। हम दो व्यक्तियों की टीम के अथक परिश्रम से अपनी लगभग चार वर्ष की अल्पवय में ही साप्ताहिक, साधारणजन की आहत भावनाओं को मुखरित करने का एक सक्षम साधन बन चुका था। भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त रूप से अभियान छेड़ने के कारण जहाँ आम नागरिक हमारा हितैषी बन रहा था वहीं हम नौकरशाही, राजनीति और व्यापारिक क्षेत्र में व्याप्त माफ़िया की आँख में शूल की तरह गड़ रहे थे। कालाबाज़ारिए, जमाखोर, मिलावटखोर, घूसखोर आदि हर हरामखोर हमें पटरी से उतारने के मन्सूबे पाल रहा था। पहलेपहल हमें बहुत बड़े बड़े प्रलोभन दिए गए किन्तु हमारी अडिगता देख हमें धमकियाँ भी दी गईं जो कारगर न हो सकीं। तब हमारी टीम को समाप्त करने के लिए सबने दुरभिसन्धि कर हमारे नाम की सुपारी निकाली जो सूत्रों के अनुसार ₹ 6 लाख की थी।
अब इसे सुयोग कहें या दुर्योग कि पीरी को छोड़ बाक़ी बावर्ची, भिश्ती व ख़र का दायित्व अश्विनी निभाते थे। वही फ़ील्ड में रिपोर्टिंग तथा अन्य व्यवस्थाएँ देखते, सम्भालते थे अतः पत्र के प्रतिनिधि के रूप में जाने जाते थे। उनकी यही पहचान उनके लिए घातक सिद्ध हुई, अन्यथा मैं भी वहीं कार्यालय में बैठा था। अश्विनी कुछ देर पहले मुझे चौराहे पर रिक्शे तक छोड़कर लौटे ही थे कि घात लगाए बदमाशों ने हमला कर दिया। अन्य चोटों के अलावा उनके पेट में गहरा घाव लगा था। उन दिनों सैलफोन नहीं चले थे अत: लगभग आधे घण्टे बाद घर पहुँचने पर मुझे घटना की जानकारी मिली और यह कि उन्हें अस्पताल पहुँचाया गया है। मैं उल्टे पैरों अस्पताल को दौड़ा; फिर अश्विनी के परिवारवाले और हम कुछ मित्रगण ही जानते हैं कि हमारे अगले 48 घण्टे कैसे बीते।हितैषियों की प्रार्थनाओं एवं आशीर्वाद से कुछ सप्ताह बाद उसी दृढ़ता, प्रतिबद्धता व नए उत्साह से अश्विनी भाटिया ने फिर से अपना मोर्चा सम्भाल लिया। - प्रमोद वाजपेयी