दाता गुरु तेगबहादर , कहंदे जिसनु हिन्द दी चादर दिल्ली जा सीस वारिया ,पंडितां दा वेख निरादर। ' हिन्द दी चादर ' नौवें गुरु तेगबहादुर जी दे बलिदान दिवस [24 नवम्बर ,1675]पर उनके चरणों में हमारा शत -2 नमन। गुरूजी ने मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की मुस्लिम कटटरता और हिन्दुओं पर किये जाने वाले अत्याचार के विरुद्ध अपना बलिदान दे दिया। गुरूजी ने पंडितों के अपमान से विचलित होकर अपना सीस दिल्ली में धर्म के रक्षार्थ अपना सीस देकर जो उपकार किया उसका हिन्दू धर्म और उसके अनुयायी हमेशा ऋणी रहेंगे। गुरु जी का जन्म 1 अप्रैल ,1621 को अमृतसर में श्री त्यागमल जी के यहां हुआ था। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।
"धरम हेत साका जिनि कीआ
सीस दीआ पर सिरड न दीआ।"
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।
आततायी शासक औरंगज़ेब की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली मस्लिम कटटरता और कठमुल्लेपन फिरकापरस्त नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरुजी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण था। गुरुजी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे। गुरुजी ने धर्म के सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ से गुरुजी धर्म के सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहाँ साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
यहाँ से गुरुजी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिक स्तर पर धर्म का सच्चा ज्ञान बाँटा। सामाजिक स्तर पर चली आ रही रूढ़ियों, अंधविश्वासों की कटु आलोचना कर नए सहज जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित किए। उन्होंने प्राणी सेवा एवं परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि लोक परोपकारी कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं के बीच 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोबिन्दसिंहजी बनें। गोबिंद सिंह जी ने अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए मुग़ल शासकों की धार्मिक कटटरतावादी और हिन्दू धर्म विरोधी नीतिओं के विरुद्ध सशत्र संघर्ष किया। उनके 4 पुत्र धर्मयुद्ध में बलिदान हो गए और उन्होंने भी अपना जीवन धर्म की स्थापना और मानवीय मूल्यों के लिए न्यौछावर कर दिया। इन तीनों पीढ़ियों के बलिदान का समस्त हिन्दू समाज सदा -सदा ऋणी रहेगा। इन महान आत्माओं के चरणों में हम हमेशा नतमस्तक रहने का प्रण लेते हैं।
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