भारत के इतिहास में ऐसी असंख्य वीर -वीरांगनायों के नाम अंकित हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि और धर्म की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। इन महान बलिदानियों में महाराणा प्रताप का नाम सबसे महतवपूर्ण है जिन्होंने अपनी मातृभूमि और धर्म की रक्षा के लिए राजसी ठाठ -बाट त्यागकर जंगलों की खाक छानकर भी हार नहीं मानी और अपनी पूरी ताकत विदेशी मुगलों की सत्ता को उखाड़ने में लगा दी। प्रताप ने मुग़ल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार करने की बजाय रणभूमि में लड़ने का रास्ता स्वीकार किया। धन्य है ऐसी वीरांगना जिसने ऐसे वीर पुत्र को जना ,हम सदैव उसके आभारी रहेंगे। आज देश में ऐसे लोगों और नेतायों की कमी नहीं है जो सत्ता के लिए देश -धर्म के विरुद्ध जाकर भी अपने स्वाभिमान और अस्तित्व का सौदा करने से भी बाज नहीं आ रहे ,लानत है ऐसे लोगों पर। आज फिर ऐसा वातावरण बनता जा रहा है जिसमे भारत के स्वाभिमान को देश के अंदर और बाहर से गम्भीर चुनौती दी जा रही है और शासक वर्ग ऐसी ताकतों से निपटने की बजाय उनके आगे पुरे राष्ट्र के गौरव को धूमिल करने में तनिक भी शर्म महसूस नहीं कर रहा। अब फिर वो समय आ गया है जिसमें हमारी मातृभूमि अपने सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपनी संतान को पुकार रही है। आओ आज हम महाराणा प्रताप जैसे वीर बलिदानी की पुण्य तिथि पर शपथ लें कि हम भारत माँ की पुकार को अनसुना नहीं करेंगे और उसके स्वाभिमान को रौंदने वाली राष्ट्र और धर्म विरोधी शक्तियों को आगामी लोकसभा चुनाव में समूल उखाड़ कर दम लेंगे। यही शहीदों के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
महाराणा प्रताप (९ मई, १५४०- १९ जनवरी, १५९७) उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया दिया राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने कई वर्षों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। इनका जन्म राजस्थान के कुम्भलगढ में महाराणा उदयसिंह एवं माता राणी जीवत कँवर के घर हुआ था। १५७६ के हल्दीघाटी युद्ध में २०,००० राजपूतों को साथ लेकर राणा प्रताप ने मुगल सरदार राजा मानसिंह के ८०,००० की सेना का सामना किया। शत्रुसेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को शक्ति सिंह ने बचाया। उनके प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें १७,००० लोग मारे गएँ। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयासकिये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिनचिंतीत हुइ। २५,००० राजपूतों को १२ साल तक चले उतना अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।